Sunday, 28 September 2008

वस्तुस्तिथि

सोचा था किनारे पे मिलेंगी घडियां सुकून की ।
आंधियों से लड़ने की हिम्मत जुटाना ज़िन्दगी अब ।
पर सुकून कहाँ पाते शाख से टूटे पत्ते ।

1 comment:

Aparna (Life Takes) said...

wow...that was such a nice poem